Monday, November 2, 2015

Obama-Nawaz Joint Statement: Charade and Reality

Oct 30, 2015/ South Asia Monitor

Pakistan’s terror infrastructure can not be dismantled in half or one fourth or two-third as it derives its life blood from a radicalized society having a craving for all around religious war and an unitary radicalization infrastructure that provide terror recruits to carry out war by terrorism against both India and Afghanistan. Read full analysis of Obama-Nawaz Joint Statement here

 

असंतोष से उबलता पाकिस्तान

Oct 15, 2015/ Dainik Jagran

अमेरिका की पाकिस्तान एवं चीन की नौसैनिक नाकेबंदी करने की क्षमता को प्रभावित करेगा। गुलाम कश्मीर और गिलगित-बाल्टिस्तान में असंतोष भरे आंदोलन अस्सी के दशक से ही होते रहे हैं, लेकिन एक वीडियो सामने आने में तीन दशक लग गए। बलूचिस्तान में प्राकृतिक गैस एवं खनिजों के बड़े भंडार हैं। इस संपदा को पाकिस्तानी सैन्य अधिकारी और पंजाबी राजनेता मिलकर लूट रहे हैं, जबकि बलूच जनता मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित है। करीब 19000 बलूच लापता हैं। बलूच नेताओं के अनुसार पाक सुरक्षा बलों ने इन लोगों की हत्या कर दी है। बलूचिस्तान में गुमनाम सामूहिक कब्रों के मिलने का सिलसिला आम हो चुका है। इसी जुलाई में ईद के दिन पाक फौज ने अरवान जिले में तीन गांवों पर बमबारी कर महिलाओं और बच्चों सहित 200 से अधिक बलूचों को मार डाला। सिंध में तो 1972 से ही बांग्लादेश की तरह स्वतंत्र सिंधुदेश की मांग उठ रही है। 2012 से इस आंदोलन ने और जोर पकड़ा है।

मार्च 2012 में कराची में लाखों लोगों ने मुस्लिम लीग द्वारा 1940 के लाहौर अधिवेशन में पारित पाकिस्तान प्रस्ताव की 65वीं वर्षगांठ पर पाकिस्तान के विचार को नकारते हुए स्वतंत्र सिंधुदेश की मांग के समर्थन में जुलूस निकाला था। इसके कुछ ही दिन बाद सिंधुदेश आंदोलन के प्रमुख नेता बशीर अहमद कुरैशी की जहर देकर हत्या कर दी गई। सिंधी राष्ट्रवादी पाकिस्तान के सत्ता संस्थानों में पंजाबी वर्चस्व का विरोध करते रहे हैं और आइएसआइ समर्थित आतंकी संगठनों एवं मदरसों की सिंध में बढ़ती गतिविधियों को इस क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान के लिए बड़ा खतरा मानते हैं।

पिछले महीने जब प्रधानमंत्री नवाज शरीफ संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित कर रहे थे तो बाहर बड़ी संख्या में मुहाजिर आजादी-आजादी के नारे लगा रहे थे। उनके अनुसार पाकिस्तान में 1947 से अब तक 13 लाख मुहाजिर मुसलमान हिंसा की भेंट चढ़ चुके हैं। मुहाजिरों के सबसे बड़े नेता अल्ताफ हुसैन ने मुहाजिरों की ओर से भावनात्मक अपील जारी करते हुए कहा था कि अगर भारत एक स्वाभिमानी देश है तो वह मुहाजिरों का नरसंहार जारी नहीं रहने देगा। मुहाजिर वे मुसलमान हैं जो 1947 में मौजूदा भारत के हिस्सों से पाकिस्तान गए थे। अल्ताफ हुसैन की अपील स्पष्ट करती है कि इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान के निर्माण का विचार कितना खोखला साबित हुआ। बड़े परिप्रेक्ष्य में देखें तो जिहादी मानसिकता वाला पाकिस्तानी राज्य तंत्र अपने देश के तकरीबन सभी हिस्सों और अपने दो प्रमुख पड़ोसी देशों भारत एवं अफगानिस्तान के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष युद्ध की स्थिति में है। ऐसे में कहना कठिन है कि भविष्य में इसका क्या स्वरूप होगा, परंतु इतिहास कुछ सबक तो देता है। अस्सी के दशक में बर्लिन की दीवार को स्थायी समझा जाने लगा था, लेकिन पूर्वी जर्मनी की जनता द्वारा ही उसे ध्वस्त किया गया। आज का पाकिस्तान पूर्वी जर्मनी से कहीं अधिक अस्थिर जान पड़ता है। प्रधानमंत्री गुजराल के समय से शुरू की गई पाकिस्तान के अलगाववादी आंदोलनों से दूर रहने की नीति ने पाकिस्तान को भारत के विरुद्ध आतंकवाद जारी रखने का मौका दिया है। अगर भारत पाकिस्तान में पनप रहे असंतोष और वहां के अलगाववादी आंदोलनों को नजरअंदाज करता है तो भविष्य मे अपने लिए बड़े खतरे को जन्म लेने देने का जोखिम लेगा। अतीत में भारत से ऐसी भूल तब हो चुकी है जब 1947 में पख्तून नेता खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व वाले खुदाई खिदमतगार आंदोलन को सहायता नहीं दी गई और धीरे-धीरे आइएसआइ समर्थित जिहादी संगठनों ने इस कबीलाई क्षेत्र के नौजवानों को कट्टरपंथ की राह पर धकेल दिया। नतीजतन सीमांत गांधी कहे जाने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान का यह क्षेत्र आज तालिबान, अलकायदा और लश्कर जैसे आतंकी संगठनों का गढ़ बन चुका है। आज जमात-उद-दावा जैसे संगठन सिंध और बलूचिस्तान के युवाओं को भी आतंकवाद की राह पर ले जा रहे हैं। अगर ये संगठन सफल हुए तो भारत और पूरे विश्व के लिए आतंकी खतरा कई गुना बढ़ जाएगा।

1947 में भारत ने तो पाकिस्तान के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया, लेकिन आज खुद उसके घटक ही पाकिस्तान के मूल विचार को नकार रहे हैं। पाकिस्तान में उभरता असंतोष स्वत:स्फूर्त है। ऐसे में भारत को वहां की घटनाओं के प्रति न केवल सजग रहना चाहिए, बल्कि उन्हें सही दिशा एवं गति देने का कौशल विकसित करना चाहिए। यह आवश्यक है कि भारत गुलाम कश्मीर, गिलगित-बाल्टिस्तान, सिंध और बलूचिस्तान में पाकिस्तान द्वारा किए जा रहे अत्याचारों की ओर विश्व समुदाय का ध्यान आकर्षित करे। बलूच जनता को विश्व से उतनी ही सहानुभूति की जरूरत है जितनी इस्लामिक स्टेट से पीडि़त यजीदी समुदाय को मिल रही है।

[लेखक दिव्य कुमार सोती, सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं]

Nepal: Why India should ensure a Stable Madhes

Oct 16, 2015/ South Asia Monitor

Strategic importance of Madhes for India as well as Nepal analysed from historical, geographical and cultural perspective. And why Nepal Hill Elite developing liaisons with China leaves Madhes as last buffer for India. Read full article here

China's Military Cut: Xi's Attempts at Control

Oct 7, 2015/ South Asia Monitor/ Indian Defense Review

China's latest Military Cut is driven by History, Geo-Strategy and Communist Party's Power Politics --
Read here

Sunday, August 30, 2015

Revisiting Ufa: Pakistan's Untenable Misinterpretations

My Column examining Pakistan's misrepresentation to United Nations & Global Think Tanks regarding spirit of Ufa Joint Statement. Read Here

पाकिस्तान की आतंक नीति

Dainik Jagran (Aug 24, 2015)

भारत द्वारा पाकिस्तान के साथ किए जाने वाले कूटनीतिक समझौतों की आयु अधिक नहीं रही है और इस संदर्भ में पहली बार आतंकवाद के मुद्दे को केंद्र में रखकर घोषित किया गया उफा का संयुक्त बयान भी अपवाद साबित नहीं हुआ। नवाज शरीफ सरकार और पाक सेना ने पूरी कोशिश की कि भारत स्वयं ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) स्तर की बातचीत से पीछे हट जाए। इसके लिए सीमा पर भारी गोलाबारी से लेकर गुरदासपुर और ऊधमपुर में आतंकी हमलों तक हर हथकंडा अपनाया गया। जब भारत ने संयम नहीं खोया तो पाक कश्मीरी अलगाववादियों से न मिलने देने को बहाना बनाकर वार्ता से पीछे हट गया। मोदी सरकार ने सरताज अजीज को भारत की धरती पर बैठकर भारत को तोडऩे की योजना पर चर्चा करने की अनुमति न देकर सराहनीय कदम उठाया है। पिछली कई सरकारें यह साहस नहीं दिखा पाई थीं। उफा के बाद पाकिस्तान के रवैये से यह पहले ही स्पष्ट हो चुका था कि एनएसए वार्ता से कुछ खास नहीं निकलने वाला।

भारत विरोधी आतंकवाद में पाकिस्तान की संलिप्तता का जीता जागता सुबूत नावेद का जिंदा पकड़ा जाना है जिसने खुलेआम कुबूल किया कि वह पाकिस्तानी नागरिक है। हालांकि पाकिस्तान ने उसे अपना नागरिक मानने से इंकार कर दिया। अगर सरताज अजीज भारत आते भी तो नावेद को पाकिस्तान के गैर-सरकारी तत्वों से जुड़ा व्यक्ति बताकर पल्ला झाड़ लेते जैसा कि पाकिस्तान ने अजमल कसाब के मामले में किया था। पूरा प्रकरण पाक फौज और आतंकी संगठनों की पाकिस्तानी राज्य तंत्र पर पकड़ का उदाहरण है और भारत द्वारा पाकिस्तान के समक्ष उसके ही विरुद्ध सुबूत पेश करने की अर्थहीन साबित हो चुकी कवायद का एक और अध्याय। दरअसल यह डोजियर डिप्लोमेसी 26/11 हमलों के बाद मनमोहन सरकार द्वारा तब अपनाई गई जब भारतीय एजेंसियां आतंकियों की पाकिस्तान में बैठे उनके आकाओं से की जा रही बातचीत टेप करने और अजमल कसाब को जीवित पकडऩे में सफल रही थीं। भारतीय नीतिकारों को लगा कि अब पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्मिंदा किया जा सकेगा तथा वैश्विक बिरादरी के दबाव में उसे बदलना ही होगा, परंतु यह नीति कुछ खामियों के चलते नाकाम रही। दरअसल भारत की डोजियर डिप्लोमेसी पाकिस्तान को लश्करे तैयबा जैसे संगठनों के खिलाफ पेश किए गए सुबूतों पर न्यायाधीश की जगह बैठा देती है। यह नैसर्गिक न्याय के मूल सिद्धांतों के विपरीत है जो कहता है कि कोई भी अपराधी अपने विरुद्ध अभियोग में न्यायाधीश नहीं हो सकता है। लश्करे-तैयबा पर 26/11 सहित और आतंकी हमलों का अभियोग दरअसल पाकिस्तान के विरुद्ध अभियोग है। 26/11 की साजिश में शामिल डेविड हेडले अमेरिकी अदालत में अंतरराष्ट्रीय मीडिया के सामने आइएसआइ अधिकारियों की संलिप्तता उजागर कर चुका है। 26/11 का मुख्य साजिशकर्ता साजिद मीर पर अभी तक पाक ने उस पर कोई कार्रवाई नहीं की है।

एक मित्र एवं सहयोगी राष्ट्र से सुबूत साझा कर यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह अपनी धरती पर मौजूद आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई करेगा, परंतु पाकिस्तान ऐसा राष्ट्र नहीं है। पाकिस्तान को सुबूत देकर उससे उन आतंकी संगठनों के विरुद्ध कार्रवाई की आशा नहीं की जा सकती जिनको वह स्वयं पोषित करता है और जो भारत को हजारों घाव देकर जख्मी करने की उसकी नीति के हथियार हैं। अगर भारत सरकार द्वारा बार-बार सुबूतों से भरे डोजियर देने का उद्देश्य पाक फौज और सरकार को पाक जनता के समक्ष शर्मिंदा करना है तो यह पाकिस्तान की राष्ट्रीय प्रकृति को समझने में बड़ी भूल है। अपने सामरिक लक्ष्यों को हासिल करने में आतंकी संगठनों का इस्तेमाल करने में पाकिस्तान ने कभी शर्मिंदगी अथवा हिचक महसूस नहीं की है। जब अस्सी के दशक में जनरल जियाउल हक ने पाकिस्तान को एक कट्टरपंथी राष्ट्र में बदलने की ठानी तो पहले पाक फौज ने कट्टरपंथी मुल्लाओं से गठजोड़ करके मदरसों और इस्लामी सामाजिक संस्थाओं का विशाल जाल बुना जिसने पाकिस्तानी समाज को गहराई तक बदल डाला। जमात-उद-दावा जैसे संगठन उसी कवायद का फल हैं और आज पाकिस्तानी समाज में गहरी पैठ बना चुके हैं। यह बड़ी तादाद में शैक्षणिक और सामाजिक संस्थाओं के द्वारा आतंकवाद की फसल तैयार करता है। पाकिस्तान में आतंकवाद की मुख्यधारा में स्वीकार्यता का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि पाकिस्तान के प्रमुख राजनीतिक दलों के नेता हाफिज सईद के कार्यक्रमों में हिस्सा लेते रहे हैं। हाल ही में जब तालिबान के जनक माने जाने वाले पूर्व आइएसआइ प्रमुख हामिद गुल का निधन हुआ तो पाक सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ और हाफिज सईद दोनों ने शिरकत की। इसके अतिरिक्त यह भी समझना होगा कि अगर अमेरिकी फौज द्वारा ओसामा बिन लादेन का पाकिस्तानी सैन्य छावनी में पाया जाना पाकिस्तान को शर्मिंदा नहीं कर सका तो भला फिर और कौन सा सुबूत इसमें सक्षम है।

भारत के सामने मूल चुनौती यह नहीं है कि लश्करे-तैयबा के विरुद्ध कितने पुख्ता सुबूत पाकिस्तान को दिए जा सकते हैं अपितु यह है कि पाकिस्तान को कैसे उन सुबूतों पर कार्रवाई करने के लिए विवश किया जा सकता है। इसके लिए भारत को पाकिस्तान पर कूटनीतिक, आर्थिक, खुफिया एवं सैन्य दबाव बनाने होंगे। पाक फौज द्वारा शोषित बलूचिस्तान, गिलगित-बाल्टिस्तान और पाक समर्थित आतंकवाद से जल रहा अफगानिस्तान वह कमजोर नसें हैं जहां भारत आसानी से दबाव बना सकता है। भारत पर आतंकी हमलों का खतरा लगातार बना हुआ है, क्योंकि पाकिस्तान में जमात-उद-दावा जैसे संगठन और पुष्ट होते जा रहे हैं। ऐसे में यह विचार जरूरी है कि नए आतंकी हमलों की सूरत में क्या बस हम एक नया डोजियर भर तैयार करेंगे। इस प्रकार तो नए डोजियर बनते जाएंगे जबकि पूर्व में दिए सुबूतों पर ही पाकिस्तान ने कोई गंभीर कार्रवाई नहीं की है। भारत द्वारा दिए गए सुबूतों को पाकिस्तान तभी गंभीरता से लेना शुरू करेगा जब वह जान लेगा कि अगर उसने स्वयं कार्यवाही नहीं की तो भारत इजरायल की भांति स्वयं दंडात्मक कार्रवाई करने को प्रतिबद्ध है।

[लेखक दिव्य कुमार सोती, सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं]

Mullah Omar’s death: Pakistan’s pursuit of Strategic Stake to continue?

South Asia Monitor (Aug 12, 2015)

What Mullah Omar's death means for Jihadist world and Pak's new policy of "Strategic Stake" in Afghanistan. Read Here

Gurdaspur attack: Pakistan expanding the theatre of proxy war?

South Asia Monitor (Aug 4, 2015)

Read how Pakistan has tried to revive Khalistani Militancy in Punjab by commissioning targeted killings, ISI's plans for Punjab and what is enabling Pakistan to expand theatre of Proxy War. Read Here

Friday, July 31, 2015

Modi-Sharif Meeting:New benchmarks but caveats remain

South Asia Monitor (In focus) (Jul 14, 2015)

Read why absence of the term "composite dialogue" from Ufa Joint Statement is more important that the absence of word Kashmir, how Modi Government played safe at Ufa and how threshold of negative conduct by Pakistan stands lowered. Read full article here

Modi's Central Asia Visit: Russia could welcome the India Factor

 South Asia Monitor (Jun 12, 2015)

Modi's Central Asia Visit analysed in global security and strategic backdrop with special focus on Afghanistan. And why emergence of India as a player in Central Asia presents an opportunity to Russia to balance out things vis-a-vis China. Read more

Monday, June 22, 2015

Myanmar Operation: Why Pakistan is so rattled

South Asia Monitor and Indian Defence Review (19/20 June, 2015)

Read why Pakistan's much sported small nuclear weapons can't deter India from a Special Forces action in POK, how India's current Nuclear Doctrine will play out if Pak tries using small nukes. And Pak Generals know that. A Myanmar kind of Operation inside POK, even a small one, can cost Pak Army its domestic clout and Much More

भूल सुधारने का अवसर

Dainik Jagran and Nai Dunia (May 21, 2015)

हाल की कुछ घटनाओं ने कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के आक्रामक और भारत के रक्षात्मक रवैये को एक बार फिर सतह पर ला दिया। भारत दौरे पर आए गिलगित-बालतिस्तान से संबंध रखने वाले शोधकर्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता सेंगे सेरिंग ने भारतीय मीडिया को वहां पाक फौज द्वारा किए जा रहे मानवाधिकार हनन से परिचित कराया। उन्होंने बताया कि 1947 के भारत-पाक युद्ध में पाक द्वारा कब्जा लिए गए गिलगित-बालतिस्तान की जनता भारत के साथ आना चाहती है और भारत की ओर इस आशा भरी दृष्टि से देख रही है कि वह नियंत्रण रेखा को स्थायी अंतरराष्ट्रीय सीमा में परिवर्तित करने के विचार को स्वीकार नहीं करेगा। आश्चर्य की बात यह है कि यह सब हमें भारत सरकार से नहीं, बल्कि सेरिंग से पता चल रहा है। भारत सरकार ने कभी पीओके तथा गिलगित-बालतिस्तान में पाक सेना द्वारा किए गए नरसंहारों की ओर देश की जनता और विश्व समुदाय का ध्यान खींचने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। यह लापरवाह और लचर नीति 1947 में पाक फौज और भाड़े के कबीलाई लड़ाकों द्वारा जम्मू-कश्मीर पर किए गए हमले के समय से ही जारी है। उदाहरण के लिए 1947 में पाक फौज ने भीमबेर में पांच हजार हिंदू और सिख नागरिकों की हत्या कर डाली थी। इसी प्रकार उस समय वर्तमान पीओके के मीरपुर में मौजूद 25,000 हिंदू और सिख नागरिकों में से मात्र दो हजार ही जीवित भारत पहुंच पाए थे। यही घटनाक्रम गिलगित तथा बालतिस्तान की राजधानी स्कार्दू में भी दोहराया गया था। इस सबके बावजूद तत्कालीन नेहरू सरकार, जो कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले गई थी, पाकिस्तान द्वारा जम्मू-कश्मीर में किए गए सांप्रदायिक जनसंहार को पुरजोर तरीके से उठाने में विफल रही, जिसके फलस्वरूप पाकिस्तान इतने बड़े जनसंहार की जवाबदेही से साफ बच निकलने में सफल रहा।

गिलगित-बालतिस्तान में पाक फौज के खूनी खेल की कहानी यहीं समाप्त नहीं होती। गिलगित एक शिया बाहुल्य क्षेत्र रहा है जो महाराज हरि सिंह द्वारा भारत में विलय की गई जम्मू-कश्मीर रियासत का भाग था। 1947 में इस क्षेत्र से अल्पसंख्यक हिंदुओं का सफाया कर चुकी पाक फौज 1988 आते-आते शिया जनता से सीधे टकराव में आ चुकी थी। पाकिस्तान के पंजाबी सुन्नी शासकों द्वारा किए जा रहे भेदभाव और मूल नागरिक अधिकारों के अभाव से परेशान शिया जनता ने जब बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किए तो पाकिस्तान के तत्कालीन सैनिक शासक जिया उल हक ने सैनिक कार्रवाई के आदेश जारी कर दिए। ब्रिगेडियर परवेज मुशर्रफ के नेतृत्व में पाक फौज के विशेष दस्तों और भाड़े के कबीलाई लड़ाकों ने गिलगित में शियाओं का भीषण नरसंहार किया। ये नरसंहार उस जम्मू-कश्मीर की धरती पर होते रहे हैं जो महाराजा हरि सिंह द्वारा लिखित विलय पत्र के फलस्वरूप भारत का विधिक भाग है तथा जिसे भारत की संसद सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव में भारत का अभिन्न अंग घोषित कर चुकी है। इस सबके बावजूद हम पाक फौज द्वारा हमारी धरती पर चलाए जा रहे इस दमन चक्र को न तो राष्ट्रीय अथवा अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय बना पाए हैं और न ही हमने इस मुद्दे को भारत-पाक वार्ता के केंद्र में लाने का प्रयास किया है।

जहां भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के कारण भारत के अन्य प्रदेशों के निवासी जम्मू-कश्मीर में अचल संपत्ति नहीं खरीद सकते, गिलगित-बालतिस्तान से इस प्रकार की व्यवस्था जुल्फिकार अली भुट्टो के शासनकाल में ही समाप्त कर दी गई थी। 1988 के बाद से पाक फौज गिलगित-बालतिस्तान का जनसांख्यिकीय स्वरूप बदलने के लिए पंजाबियों और पश्तून कबीलाइयों को बड़े पैमाने पर वहां बसा रही है जिसका स्थानीय लोग विरोध करते रहे हैं, परंतु नई दिल्ली इस सब पर सदा से मौन रही है। इस कूटनीतिक चूक से उत्पन्न दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति हाल ही में तब सामने आई जब पाकिस्तान ने कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए भारत द्वारा उठाए जा रहे कदमों का यह कहकर विरोध किया कि यह जम्मू-कश्मीर की जनसंख्या का स्वरूप बदलने की साजिश है जबकि कश्मीरी पंडित जम्मू-कश्मीर के मूल निवासी हैं जिनको पाक प्रायोजित आतंकवाद के कारण कश्मीर घाटी छोड़नी पड़ी थी और अनुच्छेद 370 भी उनके पुनर्वास में बाधक नहीं है। साफ है कि जहां भारत पीओके तथा गिलगित-बालतिस्तान में पाकिस्तान द्वारा किए जा रहे अमानवीय कृत्यों पर चुप रहता है वहीं पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में दखलंदाजी करने का कोई मौका नहीं चूकता है। जहां पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में सक्रिय भारत विरोधी तत्वों को आर्थिक, कूटनीतिक और नैतिक सहायता की घोषणा करता रहता है, वहीं भारत की ओर से पीओके तथा गिलगित-बालतिस्तान में लोकतंत्र और मानवाधिकारों के लिए लड़ रहे संगठनों को किसी प्रकार का प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है।

दरअसल वाजपेयी और मनमोहन सरकारें पीओके तथा गिलगित-बालतिस्तान में पनप रही पाक विरोधी भावनाओं के प्रति असंवेदनशील रहीं। इस नीति के पीछे पाकिस्तान की असुरक्षा ग्रंथि को और अधिक सक्रिय न करने का विचार रहा है, परंतु इस नीति ने पाकिस्तान को कश्मीर पर और अधिक आक्रामक होने का अवसर दिया है। मोदी सरकार के पास पिछली सरकारों की भूल सुधारने का अवसर है। ऐसे समय में जब चीन और पाकिस्तान भारत की सामरिक घेराबंदी करने के लिए चीन-पाक आर्थिक गलियारे को गिलगित-बालतिस्तान से ले जाना चाहते हैं, गिलगित-बालतिस्तान कार्ड और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। चीन-पाक आर्थिक गलियारे का सामरिक प्रभाव समूचे एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी सामरिक प्रभुत्व के लिए भी एक बड़ी चुनौती होगा। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी को चाहिए कि वह चीनी विस्तारवाद से सशंकित अमेरिका को विश्वास में लेकर मजबूत कदम आगे बढ़ाएं। भारत की संसद को भी चाहिए वह चीन और पाकिस्तान द्वारा गिलगित-बालतिस्तान में आर्थिक गलियारा बनाने के नाम पर किए जा रहे अतिक्रमण का संज्ञान ले। साथ ही यह भी आवश्यक है कि पीओके तथा गिलगित-बालतिस्तान में पाकिस्तान द्वारा किए जा रहे मानवाधिकार हनन के मुद्दे को भारतीय संसदीय चर्चा में स्थान दिया जाए।

[लेखक दिव्य कुमार सोती, सामरिक मामलों के जानकार हैं]

China-Pakistan Economic Corridor: Challenges for India and US (South Asia Monitor: May 5, 2015)

An exploration of strategic link between CPEC and Chinese expansionist moves in South China Sea, the need for Indian national security establishment to publicly articulate an effective deterrent stance on CPEC as well as what CPEC means in backdrop of US-India Joint Strategic Vision for the Asia-Pacific and India Ocean Region. Read More

Indian makes a smart move in Central Asia (South Asia Monitor: Apr 23, 2015)

Good ‪#‎economic‬ relations with ‪#‎Turkmenistan‬ allows India to tap into Central Asia’s rich natural resources where it can also act as a major balancing factor between competing powers like ‪#‎Russia‬, ‪#‎China‬ and ‪#‎US‬.  Iran is the only secure and stable gateway for India to trade with Central Asia, and Turkmenistan has the potential to form the next link in the strategic chain. Read More

Saturday, March 14, 2015

Afghan peace process: Marred by short-sightedness (South Asia Monitor: March 12, 2015)

"The new peace process conceived by President Ashraf Ghani ultimately aims at reaching a power sharing deal with the Afghan Taliban. This latest peace process is as superficial as the previous ones because it does not demand an ideological course correction from Taliban. The Afghan Taliban remains committed to ultra-radical version of Deobandi Islam and had championed a barbaric medieval theocratic state in Afghanistan during its days in power where public flogging, stoning, beheadings and iconoclasm were perpetrated by the state machinery. Today the Islamic State is repeating just that in Iraq and Syria."

"The importance of such an ideological declaration is evident from the experience of Egypt with the Muslim Brotherhood. Though the Muslim Brotherhood had renounced the use of violent means to achieve political ends as early as 1949 and was a key participant in the Tahrir Square agitation against the Hosni Mubarak regime, when it came to power after participating in the 2012 presidential elections it was soon found trying to impose an Islamist Constitution and its members were found to be indulging in attacks on Christians and other minorities. Leading Middle East expert Yasmine El Rashidi described this as an “Islamist Coup”. Soon Egypt’s powerful military had to intervene to save the country from plunging into utter chaos. All this happened because despite giving up violence and participating in the electoral process, the Muslim Brotherhood remained ideologically committed to the cause of establishing a theocratic Islamist State." Read Full Article Here

Mufti’s Uncommon Maximal Programme

Swarajya Mag (March 11, 2015)

"Technically, the issue of dialogue should not have formed part of the CMP text, as foreign policy is not a state subject, and it has been India’s well articulated longstanding position that all issues with Pakistan are to be sorted out bilaterally. The state government cannot have a say in our Pakistan policy. The BJP should have asked Mufti to be satisfied with the fact that talks are being reopened and forget about having it mentioned in the CMP. The very mention of the ‘P’ word in CMP allowed Mufti to give credit to that country’s role in offering a “conducive atmosphere” for polls." Read More

Counter terrorism lessons (South Asia Monitor: Jan 22, 2015)

A closer look into urban guerrilla tactics employed by Paris attackers, their jihadists past, comparisons with Lindt Cafe incident and much more. Read More