Dainik Jagran (Aug 24, 2015)
भारत द्वारा पाकिस्तान के साथ किए जाने वाले कूटनीतिक समझौतों की आयु अधिक नहीं रही है और इस संदर्भ में पहली बार आतंकवाद के मुद्दे को केंद्र में रखकर घोषित किया गया उफा का संयुक्त बयान भी अपवाद साबित नहीं हुआ। नवाज शरीफ सरकार और पाक सेना ने पूरी कोशिश की कि भारत स्वयं ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) स्तर की बातचीत से पीछे हट जाए। इसके लिए सीमा पर भारी गोलाबारी से लेकर गुरदासपुर और ऊधमपुर में आतंकी हमलों तक हर हथकंडा अपनाया गया। जब भारत ने संयम नहीं खोया तो पाक कश्मीरी अलगाववादियों से न मिलने देने को बहाना बनाकर वार्ता से पीछे हट गया। मोदी सरकार ने सरताज अजीज को भारत की धरती पर बैठकर भारत को तोडऩे की योजना पर चर्चा करने की अनुमति न देकर सराहनीय कदम उठाया है। पिछली कई सरकारें यह साहस नहीं दिखा पाई थीं। उफा के बाद पाकिस्तान के रवैये से यह पहले ही स्पष्ट हो चुका था कि एनएसए वार्ता से कुछ खास नहीं निकलने वाला।
भारत विरोधी आतंकवाद में पाकिस्तान की संलिप्तता का जीता जागता सुबूत नावेद का जिंदा पकड़ा जाना है जिसने खुलेआम कुबूल किया कि वह पाकिस्तानी नागरिक है। हालांकि पाकिस्तान ने उसे अपना नागरिक मानने से इंकार कर दिया। अगर सरताज अजीज भारत आते भी तो नावेद को पाकिस्तान के गैर-सरकारी तत्वों से जुड़ा व्यक्ति बताकर पल्ला झाड़ लेते जैसा कि पाकिस्तान ने अजमल कसाब के मामले में किया था। पूरा प्रकरण पाक फौज और आतंकी संगठनों की पाकिस्तानी राज्य तंत्र पर पकड़ का उदाहरण है और भारत द्वारा पाकिस्तान के समक्ष उसके ही विरुद्ध सुबूत पेश करने की अर्थहीन साबित हो चुकी कवायद का एक और अध्याय। दरअसल यह डोजियर डिप्लोमेसी 26/11 हमलों के बाद मनमोहन सरकार द्वारा तब अपनाई गई जब भारतीय एजेंसियां आतंकियों की पाकिस्तान में बैठे उनके आकाओं से की जा रही बातचीत टेप करने और अजमल कसाब को जीवित पकडऩे में सफल रही थीं। भारतीय नीतिकारों को लगा कि अब पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्मिंदा किया जा सकेगा तथा वैश्विक बिरादरी के दबाव में उसे बदलना ही होगा, परंतु यह नीति कुछ खामियों के चलते नाकाम रही। दरअसल भारत की डोजियर डिप्लोमेसी पाकिस्तान को लश्करे तैयबा जैसे संगठनों के खिलाफ पेश किए गए सुबूतों पर न्यायाधीश की जगह बैठा देती है। यह नैसर्गिक न्याय के मूल सिद्धांतों के विपरीत है जो कहता है कि कोई भी अपराधी अपने विरुद्ध अभियोग में न्यायाधीश नहीं हो सकता है। लश्करे-तैयबा पर 26/11 सहित और आतंकी हमलों का अभियोग दरअसल पाकिस्तान के विरुद्ध अभियोग है। 26/11 की साजिश में शामिल डेविड हेडले अमेरिकी अदालत में अंतरराष्ट्रीय मीडिया के सामने आइएसआइ अधिकारियों की संलिप्तता उजागर कर चुका है। 26/11 का मुख्य साजिशकर्ता साजिद मीर पर अभी तक पाक ने उस पर कोई कार्रवाई नहीं की है।
एक मित्र एवं सहयोगी राष्ट्र से सुबूत साझा कर यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह अपनी धरती पर मौजूद आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई करेगा, परंतु पाकिस्तान ऐसा राष्ट्र नहीं है। पाकिस्तान को सुबूत देकर उससे उन आतंकी संगठनों के विरुद्ध कार्रवाई की आशा नहीं की जा सकती जिनको वह स्वयं पोषित करता है और जो भारत को हजारों घाव देकर जख्मी करने की उसकी नीति के हथियार हैं। अगर भारत सरकार द्वारा बार-बार सुबूतों से भरे डोजियर देने का उद्देश्य पाक फौज और सरकार को पाक जनता के समक्ष शर्मिंदा करना है तो यह पाकिस्तान की राष्ट्रीय प्रकृति को समझने में बड़ी भूल है। अपने सामरिक लक्ष्यों को हासिल करने में आतंकी संगठनों का इस्तेमाल करने में पाकिस्तान ने कभी शर्मिंदगी अथवा हिचक महसूस नहीं की है। जब अस्सी के दशक में जनरल जियाउल हक ने पाकिस्तान को एक कट्टरपंथी राष्ट्र में बदलने की ठानी तो पहले पाक फौज ने कट्टरपंथी मुल्लाओं से गठजोड़ करके मदरसों और इस्लामी सामाजिक संस्थाओं का विशाल जाल बुना जिसने पाकिस्तानी समाज को गहराई तक बदल डाला। जमात-उद-दावा जैसे संगठन उसी कवायद का फल हैं और आज पाकिस्तानी समाज में गहरी पैठ बना चुके हैं। यह बड़ी तादाद में शैक्षणिक और सामाजिक संस्थाओं के द्वारा आतंकवाद की फसल तैयार करता है। पाकिस्तान में आतंकवाद की मुख्यधारा में स्वीकार्यता का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि पाकिस्तान के प्रमुख राजनीतिक दलों के नेता हाफिज सईद के कार्यक्रमों में हिस्सा लेते रहे हैं। हाल ही में जब तालिबान के जनक माने जाने वाले पूर्व आइएसआइ प्रमुख हामिद गुल का निधन हुआ तो पाक सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ और हाफिज सईद दोनों ने शिरकत की। इसके अतिरिक्त यह भी समझना होगा कि अगर अमेरिकी फौज द्वारा ओसामा बिन लादेन का पाकिस्तानी सैन्य छावनी में पाया जाना पाकिस्तान को शर्मिंदा नहीं कर सका तो भला फिर और कौन सा सुबूत इसमें सक्षम है।
भारत के सामने मूल चुनौती यह नहीं है कि लश्करे-तैयबा के विरुद्ध कितने पुख्ता सुबूत पाकिस्तान को दिए जा सकते हैं अपितु यह है कि पाकिस्तान को कैसे उन सुबूतों पर कार्रवाई करने के लिए विवश किया जा सकता है। इसके लिए भारत को पाकिस्तान पर कूटनीतिक, आर्थिक, खुफिया एवं सैन्य दबाव बनाने होंगे। पाक फौज द्वारा शोषित बलूचिस्तान, गिलगित-बाल्टिस्तान और पाक समर्थित आतंकवाद से जल रहा अफगानिस्तान वह कमजोर नसें हैं जहां भारत आसानी से दबाव बना सकता है। भारत पर आतंकी हमलों का खतरा लगातार बना हुआ है, क्योंकि पाकिस्तान में जमात-उद-दावा जैसे संगठन और पुष्ट होते जा रहे हैं। ऐसे में यह विचार जरूरी है कि नए आतंकी हमलों की सूरत में क्या बस हम एक नया डोजियर भर तैयार करेंगे। इस प्रकार तो नए डोजियर बनते जाएंगे जबकि पूर्व में दिए सुबूतों पर ही पाकिस्तान ने कोई गंभीर कार्रवाई नहीं की है। भारत द्वारा दिए गए सुबूतों को पाकिस्तान तभी गंभीरता से लेना शुरू करेगा जब वह जान लेगा कि अगर उसने स्वयं कार्यवाही नहीं की तो भारत इजरायल की भांति स्वयं दंडात्मक कार्रवाई करने को प्रतिबद्ध है।
[लेखक दिव्य कुमार सोती, सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं]
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